कुछ पुराने ज़ख्म छोड़ जाते हैं निशान,
जैसे समंदर रोज ही किनारे पर खड़ी चट्टानों पर वार करती है,
कभी कोई कोना ढ़ह जाता है
कभी कोई हिस्सा जर्जर खुद को किसी पेड़ के तने से बांध कर खुद को
हर दिन एक जंग लड़ा करता है
मग़र तुम आज कितने समय के बाद आए हो किनारे पे
कितना कुछ बदल सा गया
तुमको ऐसा लगता है।
बस यू ही
ये घाव कुरेद कर हरे हो जाते हैं
तुम्हें लगता है आज तुमने ही दिए हैं,
नए ये पहलू दर्द के
हमने सालों से इनको संजोए हैं,
हरे कहाँ
ये तो लाल लहू से बहते हैं
जो घाव तुम छूकर कटाक्ष में दे जाते हो रोज नए
वो हरे कहाँ
वो तो हर रोज ही सुर्ख लाल बहा करते हैं